हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री में फ्लॉप फ़िल्मों का अजब दौर


इन दिनों हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री लगातार एक के बाद एक फिल्मों के फ्लॉप होने से हिचकोले खा रही है। बात अक्षय कुमार के सम्राट पृथ्वीराज की हो या कंगना के धाकड़ फिल्म की, बच्चन पांडे की बात हो या अनुराग कश्यप निर्देशित फिल्म दोबारा की... एक के बाद एक फ्लॉप होने की लाइन सी लगी है। उधर शमशेरा और रक्षा-बंधन जैसी फ़िल्में भी नहीं चलीं। इसी दौरान आमिर खान की फिल्म लाल सिंह चड्ढा भी लड़खड़ाते हुए आगे बढ़ी। भले ही उसने विदेशों में अपने स्तर पर कमाई की ओर रूख किया हो लेकिन सवाल तो उठता है कि आखिर ऐसी क्या बात हो गई जो अचानक फ्लॉप फिल्मों का दौर आ गया है।

    यदि गंभीरता से इन फ्लॉप फिल्मों के कारण जानना चाहें तो जो कुछ बातें निकल कर आती हैं उनमें एक यही है कि कोरोना काल में दर्शकों ने जमकर OTT पर वर्ल्ड क्लास फिल्में देखीं जिनके कारण फिल्मों को देखने और समझने का उनका नजरिया भी बदला। ऐसा नहीं कि ये फिल्में पहले उनकी पहुँच से बाहर थीं....वे फिल्में तो पहले से थीं लेकिन अमूमन हर दस पंद्रह दिनों में एक बार थियेटर की ओर रूख करने वाला वर्ग ऐसी वर्ल्ड क्लास फिल्मों को देखने में उतनी रूचि नहीं दिखाता था। फिर ताजा तैयार फैक्टरी से निकला माल सामने हो तो लोग बासी या कहें कि पुराने स्टॉक को क्यों देखें। लेकिन कोरोना काल में, लॉकडाउन में जहाँ सब कुछ बंद सा था तो लोग फिल्में देखने के लिये OTT या कहें यूट्यूब पर ही ज्यादा निर्भर थे। तो ऐसे में लोगों ने देखा कि कैसे विदेशी फिल्मकार Road to Berlin जैसी फिल्म बना ले गये और हमें पता ही न चला। याकि हमने उन्हें देखा ही नहीं। उनके बारे में जानते ही नहीं। कैसे टॉम हैक्स जैसे कलाकार The Terminal जैसी अनोखी कहानी पर काम करते हैं। कैसे उनकी फिल्मों में हर फ्रेम कुछ कहना चाहता है। इतनी बारीकी से विदेशी आखिर फिल्में कैसे बनाते हैं।

   इसी बीच कइयों ने दक्षिण भारतीय फिल्मों का भी स्वाद चखा। हांलाकि वे फिल्में पहले से डब होकर अमेजन या नेटफ्लिक्स पर मौजूद थीं लेकिन जब लॉकडाउन चल रहा हो, कहीं बाहर जाने की मनाही हो....कहीं कुछ करने को न हो जो सामने मिले उसे ही लोग देखते हैं। आप याद कर सकते हैं दूरदर्शन के उन शुरूआती दिनों की जब एक अकेला चैनल दूरदर्शन था और तब दोपहर में क्षेत्रिय फिल्में दिखायी जाती थीं। कभी मलयालम, कभी तेलगू तो कभी कन्नड। इन सभी फिल्मों के शुरू में फिल्म का सारांश हिन्दी में बता दिया जाता था और तब दर्शक उन फिल्मों को पूरे मनोयोग से देखते थे जिनकी भाषा, वेशभूषा आदि से उसका कहीं करीबी नाता नहीं था। वही बात, वही माहौल कोरोना काल में भी देखने मिला। फिर यहां तो फिल्में सारांश की बजाय सीधे डब होकर मिल रही थीं। ऐसे में कोई भला उन्हें क्योंकर छोड़े।

   तो एक लिहाज से ये अच्छा ही था कि लोगों को अपने दायरे से बाहर निकल कर बाकी फिल्में देखने का मौका मिला। उनका टेस्ट बदला, समय के साथ नजरिया बदला। अब इन सब के बीच कुछ और कारण भी रहे जिनके कारण फिल्मों के कलेक्शन पर असर पड़ा। मसलन, फिल्मों के रिलीज होने के कुछ समय बाद उनका अमेजन, नेटफ्लिक्स या हॉटस्टार जैसे OTT प्लेटफॉर्म्स पर आ जाना। ऐसे में उस तरह के दर्शक जो First day first show नहीं देखकर बाद में फुरसत से अपने समय के हिसाब से फिल्में देखने जाते थे, बाकायदा पॉप कॉर्न, कोल्ड ड्रिंक लेकर सूकून से फिल्में देखता थे वह भी ठिठक गये कि यार कुछ दिन बाद तो फिल्म अमेजन या नेटफ्लिक्स पर आनी ही है तो क्यों अलग से समय निकालना, अलग से जाकर खर्चा करना। फिर कुछ फिल्में तो सीधे OTT पर ही रिलीज हुई थीं । याद किजिए शूजित सरकार की फिल्म 'गुलाबो-सिताबो' जिसे सीधे अमेजन पर रिलीज किया गया था. दरअसल कोरोना काल के समय जहाँ तमाम सिनेमा घर बंद थे तो ऐसे में प्रोडयूसरों को अपनी फिल्म की लागत निकालना मुश्किल हो रहा था तो उन्होंने सीधे इन प्लेटफॉर्म से बात की। उन OTT वालों के बीच भी अपने दर्शक बढ़ाने की होड़ मची थी फिर वो चाहे अमेजन हो, नेटफ्लिक्स हो या हॉटस्टार। दर्शक तभी बढ़ेंगे जब उन्हें कुछ अच्छा और नया सा मिले। ऐसे में फिल्म निर्माताओं और OTT प्लेटफॉर्म वालों के बीच Win-Win Situation वाली स्थिति आ गई। दोनों के हित एक दूसरे के लिये पूरक ठहरे। ऐसे में कुछ सिनेमा घर के मालिकों ने इस चलन का विरोध भी किया था। जाहिर है, उनके हितों की अनदेखी हो रही थी। समय के साथ यह विरोध ठंडा पड़ता गया। फिर अब तो सिनेमा घर खुल गये हैं लेकिन दर्शक नदारद।

     फिर अभी हाल ही में राकेश रोशन ने एक इंटरव्यू में कहा था कि आजकल की फिल्मों में गाने अच्छे नहीं होते। गानों की वजह से हीरो की इमेज बनती है। हम कोई गाना सुनकर ही अनुमान लगा लेते हैं कि ये फलां हीरो पर पिक्चराइज हुआ था। उल्लेखनीय है कि पुष्पा फिल्म के हिट होने में उसके गानों का भी अहम रोल रहा था। अब ना तो वैसे गाने बनते हैं और ना ही लोग हीरो को उतना भाव देते हैं। यदि गाने हैं भी तो बस खानापूर्ति की तरह। ऐसे में किसी फिल्म के हिट होने का एक अहम हिस्सा खुद-ब-खुद हट सा गया है या हटा दिया गया है।

  इन सबके बीच सोशल मीडिया पर ऐसे हीरो-हिरोइनों की पहुँच ने भी दर्शकों के नजरिए को प्रभावित किया है। उनके विचारों के आदान-प्रदान ने भी आम इंसान और सेलिब्रेटी के बीच फासला कम ही किया है। लोगों समझने लगे हैं कि ये हैं तो हमारी ही तरह के लोग, फिर उनके लिये इतना क्या पागलपन करना। हांलाकि इसके अपवाद भी हैं। दूसरी ओर सोशल मीडिया के चलते इंडस्ट्री में राजनितिक पुट भी असर करने लगा है। कुछ निर्माता निर्देशक सरकार की ओर से बोलते नजर आते हैं तो कुछ विरोधी स्वर में। ऐसे में बॉयकाट का चलन भी बढ़ता जा रहा है। गाहे-बगाहे फिल्म इंडस्ट्री के लोग बॉयकाट वालों से बचना चाहते हैं क्योंकि पैसा लगा है। एक मामूली सी चूक और बॉयकाट समूह सक्रिय। ऐसे में इसका असर फिल्मों के प्रमोशन और उनकी पहुँच पर पड़ना ही है। इसकी बानगी लाल सिंह चड्ढा फिल्म में देखने मिलती है जिसके डिस्क्लेमर इतने लंबे चौड़े लिखे गये हैं मानों किसी वकील की ओर से शपथ पत्र पेश किया गया हो। लोग फिल्म के शुरू होने का इंतजार करते हैं लेकिन डिस्क्लेमर हैं कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेते। ऐसे में समझ सकते हैं कि यह इंडस्ट्री कितनी डरी सहमी है।

   जहाँ तक सवाल है दर्शकों के फिर से सिनेमा घर की ओर रूख करने की तो जब तक इंडस्ट्री अपने आप में आमूल-चूल बदलाव नहीं करेगी, शर्तों और आमदनी पर सुधारात्मक कदम न उठायेगी, यह स्थिति बनी रहेगी। ऐसे में कोई एकाध फिल्म भले हिट हो जाय, दर्शक किसी एक फिल्म को बड़े पर्दे पर देखने की ललक में भले चले जांय लेकिन लंबे समय तक यदि बदलाव देखना है तो इंडस्ट्री को भीतर से बदलाव करना होगा, भीतर से ही नियामक बनाना होगा ताकि मोटी फीस वाले स्टार कास्ट के चक्कर में फिल्में यूँ ही न पिटती रहें, किसी शोशेबाजी के चक्कर में बॉयकाट और विरोध न झेलना पड़े। राज्यों को भी देखना होगा कि यदि फिल्म इंडस्ट्री के जरिए सरकार को टैक्स मिले तो उन्हें उतनी सुविधा भी मिले, एक सुरक्षित माहौल भी मिले ताकि डरते हुए, सहमे हुए माहौल में फिल्म न बनानी पड़े और दर्शक खुल कर सिनेमा घर जाकर फिल्मों का आनंद ले सकें।


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